प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (२९ जनवरी १९२२[1] – १४ जुलाई २००३) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक थे, जिन्हें सर्वसाधारण जन से लेकर संघ परिवार तक सभी जगह रज्जू भैया के नाम से ही जाना जाता है। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३९ से १९४३ तक विद्यार्थी रहे। तत्पश्चात् १९४३ से १९६७ तक भौतिकी विभाग में पहले प्रवक्ता नियुक्त हुए, फिर प्राध्यापक और अन्त में विभागाध्यक्ष हो गये। रज्जू भैया भारत के महान गणितज्ञ हरीशचन्द्र के बी०एससी० और एम०एससी० (भौतिक शास्त्र) में सहपाठी थे।
रज्जू भैया का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर की इन्जीनियर्स कालोनी[2] में २९ जनवरी सन् १९२२ को इं० (कुँवर) बलबीर सिंह की धर्मपत्नी ज्वाला देवी के गर्भ से हुआ था। उस समय उनके पिताजी बलबीर सिंह वहाँ सिचाई विभाग में अभियन्ता के रूप में तैनात थे। बलबीर सिंह जी मूलत: उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद के बनैल पहासू गाँव के निवासी थे जो बाद में उत्तर प्रदेश के सिचाई विभाग से मुख्य अभियन्ता के पद से सेवानिवृत हुए। वे भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (आई०ई०एस०) में चयनित होने वाले प्रथम भारतीय थे। परिवार की परम्परानुसार सभी बच्चे अपनी माँ ज्वाला देवी को “जियाजी” कहकर सम्बोधित किया करते थे। अपने माता-पिता की कुल पाँच सन्तानों में रज्जू भैया तीसरे थे। उनसे बडी दो बहनें – सुशीला व चन्द्रवती थीं तथा दो छोटे भाई – विजेन्द्र सिंह व यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और केन्द्र व राज्य सरकार में उच्च पदों पर रहे।[3]
संघ यात्रा
रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।
संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी। प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आँखे इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गयीं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आये हैं, उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर-महाराष्ट्रियन अब्राह्मण पहुँच सकता है – वह भी सर्वसम्मति से। रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।